कुछ मेरे बारे में

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आईज़ोल, मिज़ोरम, भारत
अब अपने बारे में मैं क्या बताऊँ, मैं कोई भीड़ से अलग शख्सियत तो हूँ नहीं। मेरी पहचान उतनी ही है जितनी आप की होगी, या शायद उससे भी कम। और आज के जमाने में किसको फुरसत है भीड़ में खड़े आदमी को जानने की। तो भईया, अगर आप सच में मुझे जानना चाहते हैं तो बस आईने में खुद के अक्स में छिपे इंसान को पहचानने कि कोशिश कीजिए, शायद वो मेरे जैसा ही हो!!!

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शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

लोकपाल का ऊँठ किस करवट बैठेगा

मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि लोकपाल पर मैं किस पक्ष के साथ हूँ, कल रात बारह बजे तक मैं अपने पाँचो इंद्रियों कि सहायता से यह समझने कि कोशिश करता रहा कि सदन में चल रही चर्चा लोकपाल के विषय पर है या राजनैतिक (काफी हद तक अनैतिक) दावं-पेंच और एक दूसरे को नीचा दिखाने कि कवायद है। हालांकि छ्टी इंद्री तो लगातार कह रही थी कि सदन में कोई भी बिल को पास करने की इच्छा नहीं रखता है (आखिर अपने पैंरो पर कोई कुल्हाडी क्यों मारेगा?)।

कल जिस तरह से सरकार वोटिंग से पीछे हट गई, या यूं कहा जाय की सदन से भाग खडी हुई, वो अप्रत्याशित और शर्मसार करने वाला था (अगर कोई शर्म महसूस करे तो)। अब इसी विषय पर सभी दल अपना-अपना राग अलाप रहे हैं, (औफकोर्स पोलिटिकल माईलेज के लिए, और कुछ हद तक अपनी गलती छुपाने के लिए भी) । इसी संदर्भ में मैं यह सोच रहा हूँ कि अगर वोटिंग होती तो क्या होता? (यह प्रश्न कुछ-कुछ "यदि होता किन्नर नरेश मैं, राजमहल में रहता" टाईप का लग रहा है, पर है नहीं) । दो ही नतीजा हो सकता था, या तो बिल पास होता या गिर जाता । और पास कैसे होता (यदि तनिक भी गुंजाइश होती तो सरकार सरक के भाग थोडे ही जाती) उसे तो गिरना ही था  (और यह तो सब जानते भी थे) । 


अगर ऐसा वाकई था तो फिर वह क्यों हुआ जो हुआ ।  और यह भी छोडिये यह सोचिए कि जब रिज़ल्ट  तय था और उससे बिल का पास न होना भी तय था तब यह नाटक क्यों? जहाँ तक मेरा अल्पज्ञान जाता है यह सब केवल इसलिए हुआ क्योंकि विपक्ष के हाथ से सरकार कि किरकिरी करने का मौका हाथ से निकल गया इसलिए निराश है और सरकार को लगता है कि वोटिगं भले ही न हुई हो सबलोग समझ रहे हैं हार तो तय ही थी, इसलिए हताश है। 

यह हताशा और निराशा तो राजनीति में चलती रहती है, मेरी समस्या है कि इन हताशा और निराशा के बीच लोकपाल कहाँ दफन हो गया पता ही नही चला, और इससे बडी समस्या यह है कि चर्चा  वोटिग पर तो हो रही है लोकपाल गायब है । 

आज अरविन्द केजरीवाल जी ने यह कहा कि "यदी सरकार वोटिगं कराती तो हो सकता है कि हमें एक लोकपाल मिल जाता जो कम-से-कम एक शुरूआत तो होती? "  मैं अब वाकई दुविधा में हूँ, या शायद त्रिविधा में कि मैं किस पाले में जाँऊ (क्योकि यह सब लोग तो मेरे पाले मैं आने से रहे) । अभी एकदिन पहले तक तो यह बिल किसी काम का नहीं था उसका न पास होना ज्यादा अच्छा था अब क्या हो गया ? 

पिछने 8-10 महीनों से पूरा देश देखना चाह रहा है कि "ऊँठ किस करवट बैठता है" लगता है अब मार्च में बजट के समय तक इंतज़ार करना होगा । कहीं ऐसा नहो कि यह ऊँठ बैठे ही नहीं । 

मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

१ बार मुस्कुरा २

यदि आप रेल/जहाज का टिकट खुद औन-लाईन बनाते हैं तो मेरी राय है कि आप टिकट का कम-से-कम दो प्रति यात्रा मे‍ साथ रखें । हां, एक बात और, पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरुक बने‍, कागज के दोनों तरफ प्रिन्ट करे‍, कागज बचाएं ।

आप भी खुश रहें कि आपके पास टिकट कि दो प्रति है और आपने पर्यावरण के प्रति संजीदगी भी दिखाई है...

इसे कहते हैं एक तीर से दो निशाना लगाना...

रविवार, 11 दिसंबर 2011

मत का महत्व !


भारत में प्रत्यक्ष निवेश  के अपने लाभ-हानी हो सकते हैं, इस पर एक लम्बी बहस हो सकती है, होनी भी चाहिए, लेकिन अफसोस कि प्रत्यक्ष निवेश  पर कोई सार्थक वार्ता हुई ही नहीं, अव्वल तो सरकार पक्ष के जल्दबाज़ी में लिए गए फैसले कि वजह से और दूसरी तरफ विपक्षी पार्टीयों के द्वारा संसद का कार्य स्थगन के कारण । यह बात हो पक्ष और विपक्ष दोनों जानते हैं कि ताली दोनों हाथ से ही बज सकती है, अगर कोई एक हाथ भी ताली बजाने में सहयोग नहीं करेगा तो कार्य नहीं हो सकेगा ।
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अब एक दूसरा राजनीतिक मुद्दा लेते हैं, भष्टाचार के खिलाफ एक मजबूत कानून का !
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भष्टाचार के खिलाफ एक मजबूत कानून की आवश्यकता से कोई भी इंकार नहीं कर सकता । लेकिन यह एक बडी त्रासदी है कि भष्टाचार के खिलाफ एक मजबूत कानून बनाने के लिए जनता को आंदोलन चलाना पडता है, (आखिर हमनें सांसदों को चुन कर संसद में पैसा लेकर प्रश्न पूछने के लिए तो नहीं ही भेजा था, उनका काम तो जनता के हित में कानून की समिक्षा करना ही तो है ना?) और फिर भी कुछ होता हुआ नहीं दिख रहा । मुझे नही लगता कि इस पर किसी भी वार्ता या बहस कि कोई भी आवश्यकता है, एक मजबूत कानून तो होना ही चाहीए । हां, इसकी व्यवस्था कैसे हो, सजा कितनी हो इस पर कुछ चर्चा हो सकती है, लेकिन यहां तो सार्थक चर्चा का कोई प्रयास होता ही नजर नही आ रहा है।  
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यह हमारा लोकतंत्र किस दिशा में बढ रहा है? सांसद चर्चा नही करते, सरकार सुनती नहीं, विपक्ष कार्य स्थगन का बहाना ढूंढता रहत्ता है, भ्रष्टों पर कार्यवाही नहीं होती, जनता को एक मूलभूत मुद्दे पर अन्य कार्य छोड कर आंदोलन करना पडता है, और यह सब इसलिए क्योंकी आम जनता मतदान नही करती ।

आखिर हम कब समझेंगे अपने मत का महत्व ! क्यों न हम इन जैसे नेताओं का बहिस्कार कर दें! 

रविवार, 30 अक्टूबर 2011

Survival of the fittes


बाज़ार केवल लाभ कि भाषा जानता है, मेरे ख्याल से इसे खुली छूट नहीं दी जानी चाहिए। Survival of the fittest सुनने में तो अच्छा लगता है, लेकिन कभी हम यह भी सोचते है कि आगे बढने कि इस अंधी दौड में पीछे रह जाने वाला व्यक्ति भी हममें से ही एक होता है। भारतीय संसकृति में हम केवल लाभ कि चर्चा न कर के शुभ-लाभ कि चर्चा करते हैं, यानीं वह लाभ जो शुभ हो, अब क्या कोई ऐसा कदम शुभ हो सकता है जिससे चंद लोगों को असीम लाभ होता हो लेकिन जनसाधारण को कोई लाभ न हो बल्की दूरगामी हानी का ही अंदेशा हो?

मुझे देश कि उच्च विकास दर पर नाज़ तो है लेकिन जाने क्यों मुझे लगता है कि यह लाभ उस अंतिम व्यक्ति (जैसा गांधी जी ने कहा है) तक नहीं पहुंच पाता है । तो क्या यह विकास केवल चंद लोगों के लिए ही है?

ऐसी मान्यता है कि उच्च विकास दर कि वजह से मुद्रास्फिति पैदा होती है, मुद्रास्फिति के इस चक्की से बडे व्यापारियों पर तो धन-वर्षा होती है लेकिन उस चक्की में पिसता हो आम आदमी ही है न? तो क्या यह उच्च विकास दर एक छलावा मात्र नहीं है?

मंगलवार, 25 अक्टूबर 2011

१ बार मुस्कुरा २

अध्यापक छात्र से: OXFORD मतलब क्या होता है?

छात्र : OX मतलब बैल और FORD एक गाडी का नाम है, इसलिए OXFORD मतलब बैलगाडी होता है।

सोमवार, 24 अक्टूबर 2011


धनतेरस

धन-तेरस ! मेरी अल्प जानकारी में यह एक मात्र  दिन है जिसमें तेरह (१३) का अंक जुडा हुआ है फिर भी हर वर्ष इसे हर्ष-उल्लास से मनाया जाता है।  आज का दिन धनवन्तरी जयन्ती भी है । हम सब को यह दिन मुबारक हो, हम सबकी मंगल-कामनांएं पूरी हों ।

रविवार, 2 अक्टूबर 2011


महात्मा गाँधी कि भारत यात्रा


(मैं नही जानता कि मैं इसे हास्य कहूँ या व्यंगइसे गद्य कहूँ या पद्यव्यथा कहूँ या अभिलाषा,सम्वेदना कहूँ या अभिव्यक्तिचिंता कहूँ या चिंतनलेकिन ये विचार मुझे आज से ठीक 1३ वर्ष पहले आया थाजिसे मैंने कलमबद्ध तो उसी समय कर दिया थाएक मंच से पढा भी थालेकिन उसके बाद से यह मेरे जेहन में कहीं दबा हुआ था। आज महात्मा गाँधी जी का जन्मदिन हैऔर मुझे लगता है आज सही वक्त है इसे पुन: अभिव्यक्त करने का। इस लेख में पात्रों को व्यक्ति विशेष के रूप में न देखा जाना चाहिए बल्की भावना को समझने कि चेष्टा होनी चाहिए और इसी सन्दर्भ में मैं आप सबकी राय भी जानना चाहुँगा) (यह लेख पिछले वर्ष के इसी ब्लाग से लिया गया है)

जैसे ही महात्मा गाँधी जी अखबार उठाए
मायावती द्वारा खुद के नाम पर प्रहार पाए
सो वह तुरंत पहुंचे बी.एम.डब्लू’ के घर
वहां उनका नौकर बोला बैठीएबहन जी हैं अन्दर

बहन माया वती’ आते ही पकड़ लीं गाँधी जी के पैर
और बोलीं आशिर्वाद दीजीए
गाँधी जी बोले पैर छोड़िए पहले मुझसे बात कीजिए,
पहले मेरी इस शंका का निवारण कीजिए,
खबरों से तो लगता है आप हैं मुझसे नाराज़ सख्त,
लेकिन अभी तो लग रहा है आप हैं मेरी परम भक्त

सुन कर यह बात मायावती मुस्काईंथोड़ा सकुचाईं
और दबी आवाज़ में गाँधी जी को सच्चाई बतलाईं
बोलीं, मैनें इसलिए प्रकट किया आपका आभार
क्योंकि आप ही हैं मेरे राजनीतिक जीवन का आधार।
चँद दिनों पहले मुझे जानता नहीं था कोई,
और आज मेरे पीछे है विधायकों की फौज,
इतने कम समय में प्रसिद्धी पानामेरी ही है मौलिक खोज।

आमतौर पर सभी आप को पूजते हैं,
सो मैनें सबसे अलग हट कर आपको दी गाली,
इस वजह से मुझे खबरों में मिली सुर्खी
और आज सोने-चाँदी से भरी है मेरी थाली।
इसीलिए मैंने कहाआप ही हैं मेरे राजनीतिक जीवन का आधार,
अब आप जो सज़ा देंवो है मेरे लिए सिरोधार।
अपने राजनीतिक आराध्य को गाली देना मुझे भी खलता है,
पर क्या करें आज-कल राजनीति में सब चलता है

मायावती से मिल कर गाँधी जी पहुँचे उस पार्टी के पास,
जिस पार्टी का उन्होने मरते दम तक दिया था साथ।
पार्टी के दफ्तर कि दीवार पर टंगी थी महात्मा गाँधी की तस्वीर
जिसपे पड़ी थी एक ताज़े फूलों की माला,
और उस तस्वीर के पीछे छिपा था धन काला।
उन्हे न पहचानते हुए एक बड़े नेता ने पुछा कौन?
महात्मा गाँधी खड़े रहे मौन।

वह नेता पुन: बोला किससे मिलना हैबोलो क्या काम है?
गाँधी जी बोले, शायद इसीलिए है कांग्रेस इतनी बदनाम
बोले, तुम मेरे नाम से करते हो अपनी राजनीति का व्यापार
और मुझे ही पहचानने से करते हो इंकार?
मुझे गाली देने वालों से राजनीतिक तालमेल करते हो
और सत्ता में आने पर घोटाले और गोलमाल करते हो,
शर्म नहीं आतीकांग्रेसी हो कर भी पैसे पर मरते हो?

इतना सुन कर बोला वह कांग्रेसी नेता
आप को अन्दर आते तो किसी ने नहीं न देखा?
अब आप चुपचाप पिछले रास्ते से हो जाइए नौ-दो-ग्यारह
और कृपया इधर बीच यहाँ न आइयेगा दोबारा।
कहीं-कहीं हमारा ब.स.पा. से समझौता है
आप को यहाँ देख कर हमारा सम्बन्ध खराब हो सकता है।
ऐसा नहीं है कि हम आप की इज्जत नहीं करते हैं
लेकिन क्या करें मायावती से डरते हैं।
न चाहते हुए भी हमारा ब.स.पा. से समझौता है,
क्योंकि ऐसा बुरा दौर बड़ी मुश्किल से टलता है,
और आज-कल राजनीति में सब चलता है

कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टी का देख कर यह हाल
महात्मा गाँधी हो गए बदहाल,
अब काफी थकी हुई सी लग र्ही थी उनकी चाल।
तभी दिखा उन्हे भा.ज.पा. का दफ्तर,
उसकी भव्यता देख कर उन्हे आने लगा चक्कर,
एक धर्म-निर्पेक्ष देश में धर्म के ठेकेदारों की ये शान?
वाह-रे इस देश कि जनतावाह-रे मेरे देश महान।
इनका पहला नारा है स्वदेशी,
और पैर में पहनें जूते का फीता भी है विदेशी।
इनका जो भी हैसब है दिखावा,
चाहे हो इनका चरित्रचाहे पहनावा।
ऐसा दल देख कर ये दिल जलता है,
पर क्या करेंआज राजनीति में यही चलता है।

वहाँ से आगे बढे तो मिला एम. एस. यादव का घर
यानीसमाजवादी पार्टी का मुख्य सदर,
बाहर समाज भूख से तड़प रहा था,
और अन्दर समाजवादी नेता पेट-पूजा कर रहा था।
यह दृश्य देख कर महात्मा गाँधी रह गये दंग,
क्या ऐसा ही होता है समाजवादी नेता का रंग-ढंग !
उन्होने पुछा, क्या आप विश्वास रखते हैं समाजवाद में?
भोजन से बिना हटाए ध्यानमुलायम ने दिया जवाब,
हाँहम विश्वास करते हैं इस बात मेंकि पहले हमसमाज बाद में
आज के दौर का समाजवादी नेता ऐसे ही पलता है,
और आज-कल राजनीति में सब चलता है

महात्मा गाँधी एक जगह बैठ गए हो के उदास,
तभी भारतेन्दु’ पहुँच गए उनके पास।
मैंने उनसे पूछ, आप लग रहें हैं परेशान
सुनते ही गाँधी जी हो गए हैरानगुस्से में बोले,
यदि आज राजनीति में यही चलता है,
तो क्यों नहीं तू अपना नेता बदलता है?
मैनें उन्हे समझाया, चिंता छोड़ीयेन हों परेशान
आज का युवा वर्ग है आशावान,
कि बहुत जल्द ही ढलने वाली है भ्रष्टाचार की शाम
और जल्द ही एक नया सवेरा होगा,
जिसमें सिर्फ अमन और इमान का बसेरा होगा।
ये ठीक है कि आज राजनीति में यही चलता है,
लेकिन इतिहास गवाह हैवक्त हमेशा बदलता है॥
वक्त हमेशा बदलता है॥

बुधवार, 14 सितंबर 2011


हिन्दी : मातृ भाषा से मात्र भाषा तक

आज़ादी के बाद भारत ने उन्नति के कई आयाम देखे हैं। हमनें आज़ादी के बाद बहुत कुछ पाया है, बहुत कुछ खोया भी है। आज के दिन अगर हम पीछे मुड के देखें तो पाएंगे कि उन्नति कि आपाधापी में कुछ अमुल्य वस्तु भी खोया है। यह फेहरिस्त बहुत लम्बी हो सकती है, लेकिन हिन्दी दिवस के सन्दर्भ में देखें तो मुझे लगता है कि हमने कहीं-न-कहीं अपनी मातृ भाषा के सम्मान को खोया है। दूसरी प्रांतीय अथवा विदेशी भाषा को सीखने-बोलनें-सम्मान देने  में कोई बुराई नहीं है, लेकिन अपनी मातृ भाषा से ज़्यादा सम्मान अन्य भाषा को देना कहां तक सही है? यह हमें कभी-न-कभी सोचना पडेगा। इस चिंतन के लिए आज से बेहतर दिन और अब से बेहतर समय कभी नहीं होगा।



ज़रा सोचिए...., एक समय था जब हमारे पूजनीय स्वतंत्रता सेनानीओं नें हिन्दी को मां का रूप मान कर इसे मातृ भाषा कहा था, और आज हम हिन्दी को मात्र भाषा से ज़्यादा तवज्जो नहीं देते हैं ।


आइए आज हम वायदा करते हैं कि जो काम हम हिन्दी में कर सकते हैं वह काम हम किसी और भाषा में नहीं करेंगें। या वायदा छोडिए, आज से हम यह कोशिश अवश्य करेंगे (क्यों कि वायदे अक्सर टूट जाते हैं और कोशिशे कामयाब हो जातीं हैं)।

आइए हम हिन्दी को मात्र भाषा से अलग मातृ भाषा का सम्मान दिलाने का प्रयास करते है। यह एक छोटा सा  
कदम एक दिन मील का पत्थर अवश्य बनेगा, इस उम्मीद के साथ  आप सब को हिन्दी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं”!! 

हिन्दी दिवस


हिन्दी दिवस प्रत्येक वर्ष १४ सितम्बर को मनाया जाता है। १४ सितंबर १९४९ को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिन्दी ही भारत की राजभाषा होगी । इसी महत्वपूर्ण निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने तथा हिन्दी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिये राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर सन् १९५३ से संपूर्ण भारत में १४ सितंबर को प्रतिवर्ष हिन्दी-दिवस के रूप में मनाया जाता है।
स्वतन्त्र भारत की राजभाषा के प्रश्न पर काफी विचार-विमर्श के बाद यह निर्णय लिया गया जो भारतीय संविधान के भाग १७ के अध्याय की धारा ३४३(१) में इस प्रकार वर्णित है:
संघ की राज भाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी । संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा ।                                                                                                 (विकिपीडिया से साभार

सोमवार, 5 सितंबर 2011

शिक्षक और शिक्षा


शिक्षक दिवस: हम सभी जानते हैं कि यह दिवस हम क्यों मनाते हैं । किसकी याद में मनाते हैं । और कैसे मनाते हैं । इस दिन हम अपने शिक्षकों के प्रति अपना कृतज्ञता कृतज्ञता जाहिर करते हैँ, उनका सम्मान करते हैं । यह तो हमें हर दिन ही करना चाहिए । आईए, आज का दिन हम शिक्षकों के नाम करने के साथ-साथ यह भी निश्चित करते हैं कि यही भावना हम वर्ष भर बनाए रखेंगे।
आईए आज के इस शुभ अवसर पर हम यह भी विचार करते हैं कि शिक्षक कौन है? मेरे विचार से हम जिससे कोई शिक्षा ग्रहण कर सकें, वही शिक्षक है। मुझे इस संसार में ऐसा कुछ नहीं दिखता जिससे हम कुछ-न-कुछ शिक्षा ग्रहण न कर सकें । चाहे वह जड़ हो या चेतन । राजा हो या रंक । छोटा हो या बड़ा । लेकिन ...... कोई भी शिक्षा लेना हो तो पहले हमें खुद को शिक्षा ग्रहण करने के काबिल बनाना होगा ।

अगर इस जगत में सभी से कुछ सीखा जा सकता है, अगर सभी में शिक्षक के गुण हैं तो हममें भी यह गुण अवश्य होंगे ! तब क्यों न सबसे पहले हम अपने अन्दर के शिक्षक को जगाएं? अगर हम खुद से शिक्षा ले सकें तो यह सबसे अच्छा होगा । तो आईए आज के दिन हम अपनें अन्दर के सोए हुए शिक्षक को जगाएं !! मुझे विश्वास है कि एक शिक्षक कोई गलत काम नहीं करता, यदि ऐसा है, तो क्या यह हमारे सभी समस्याओं का समाधान नहीं होगा?  

शिक्षक दिवस पर हम संसार में फैले कुरितियों से (और उससे पहले, अपने अन्दर के कुरितियोँ से) इस संसार को आज़ाद कराते हैं ।

रविवार, 28 अगस्त 2011

मैं हूँ अन्ना


जिसको देखो आज वही कह रहा मैं हूँ अन्ना, मैं हूँ अन्ना
चाहे हो वो किसान, मजदूर या कोई सेठ हो धन्ना
अब लगता है सरकारी दफ्तर में सबका काम बनेगा
नहीं बना तो लगा लो टोपी, लिखा हो जिसपे "मैं हूँ अन्ना"

अब वो चाहे सांसद हो या हो विधायक,
हाथ जोड कर शीश नवा कर सुने का अर्जी
अब जनता है मालिक नेता अपने सेवक
बहुत हो चुका जालसाजी औ काम सब फर्जी

चल मित्र अब हम भी सिलवा लें एक टोपी
लिखवा लें उसपे मोटे शब्दों में "मैं भी अन्ना"

लेकिन मेरे यार न भूलो रखना होगा सम्मान इस टोपी का
यह ना सोचो यह टोपी बस तेरे ही सर पर फिट बैठेगा
दर्जनो सर ऐसे हैं जिन पर टोपी यह रक्खी है
जिनपे लिखा है भईया "मैं हूँ अन्ना" "मैं हूँ अन्ना"

अब कैसे होगी तुम्हारी ऊपर कि कमाई
गए थे मजा लगाने, अब तो तेरी ही शामत आई
मेरी तो यह राय है बंन्धू, अब ना करो आना कानी
ले लो शपथ, अब कमाओगे तो बस अपनी गाढी कमाई

जब तक हम सब अंदर से ना सुधरेंगे
तब तक कहना है बेकार कि "मैं हूँ अन्ना"

मंगलवार, 16 अगस्त 2011

चिंतन

सपोले भी अब फुफ्कारने लगे
साँपो कि शिकायत कौन करे ।

चूज़ो ने भी कफन सर पर बाँधा
अब जान कि हिफाज़त कौन करे ।

जब आज़ाद हुए तो सोचने लगे
अब हम पर हुकूमत कौन करे ।

पर जब बढ चले आज़ाद कदम
तब भ्रष्टो कि नजाकत कौन सहे ।

जब बेशर्म ही सिरमौर हुए
तब उम्मीद-ए-शराफत कौन करे ।

सब बैठे है यह सोच कर कि
देखें शुरूआत-ए-बगावत कौन करे ।

अब लाख टके का प्रश्न है कि
मुल्क के लिए पहले शहादत कौन करे ।

रविवार, 14 अगस्त 2011

स्वतंत्रता दिवस


हम सबको अपने देश का स्वतंत्रता दिवस मुबारक हो। यह एक ऐसी भावना है जिसे बोलने से ज़्यादा महसूस किया जाना चाहिए। लेकिन अफसोस ! आज के तेज़ चाल जमाने में हमें सोचने कि फुरसत कम है, हम बस बोल के काम चला लेते हैं। अगर समस्या केवल फुरसत कि कमी की होती तो भी गनीमत थी, असली समस्या तो यह है कि हम अब इन मुद्दों में छिपी भावनाओं को महसूस करने से कतराने लगे हैं।
       हम सब हर वर्ष 15 अगस्त और 26 जनवरी को कितने खुश होते हैं, दोस्तों मित्रों से मिलते हैं, एक समारोह सा माहौल होता है, राष्ट्र गान, देश भक्ती के गानें, मुँह में देश के लिए कुछ भी करनें के वायदे, हाथों में कागज के तिरंगे झंडे और जाने क्या-क्या। जाने क्यों, मुझे कभी-कभी यह सब सतही सा लगता है, इसमें गहराई और भावनाओं कि कमी लगती है। मैं ऐसा कहने के लिए आप सब से और खुद से भी माफी चाहता हूँ, लेकिन जरा सोचिए, 16 अगस्त और 27 जनवरी को और इसके बाद क्या होता है। हम फिर लग जाते हैं उसी खोखली कवायद में जिसमें 14 अगस्त और 25 जनवरी तक लगे होते हैं। जरा सोचिए अगर इस दिन छुट्टी न होती तो क्या हम वह सब करते जो हम किया करते हैं? अगर हाँ, तो जरा सोचिए हमें कौन रोकता है साल के 365 दिन इसी भावनाओं के साथ रहने से? क्यों हम भ्रष्टाचार में लिप्त रहते हैं? क्यों हम एक दूसरे को नीचा दिखाने कि कवायद में लगे रहते हैं? जरा सोचिए, जो कागज के तिरंगे झंडे 15 अगस्त और 26 जनवरी को हम पूरी शान से अपनें सीने से लगाए होते हैं वही 16 अगस्त और 27 जनवरी को मात्र कागज़ के रंगीन टुकड़े क्यों हो जाते हैं? क्यों हम मिठाई से मुँह तो मीठा कर लेते हैं लेकिन दिल के कड़वाहट दूर नहीं कर पाते? जिनसे एक दिन हम गले मिलते हैं, अगले दिन उसी के पीठ में छुरा क्यों घोंपते हैं?
       क्या हम अपनी इन आदतों से कभी आज़ाद हो पाएंगे? क्या हम स्वतंत्र हो पाएंगें? क्या हम अपनें देश को कभी सही मायनों में गणतंत्र बना पाएंगें? मुझे पुरी उम्मीद है, हाँ” ! हाँ हम ऐसा ज़रूर कर पाएंगें !!!
       आइए, आज से हम कोशिश करतें हैं कि हमारे जीवन में 15 अगस्त और 26 जनवरी मात्र दो दिन नहीं होंगें, बल्की साल के सभी 365 दिन हमारे लिए 15 अगस्त और 26 जनवरी जैसे ही होंगें।

बुधवार, 10 अगस्त 2011

(बेमेल) तुकबन्दी - किस्त पाँच


पिछ्ले कुछ दिंनोँ मेँ फेसबुक पर मित्रोँ के साथ वार्तालाप मेँ कुछ तुकबन्दी का सहारा लिया । उन्ही मेँ से कुछ को यहाँ अपने ब्लाग पर भी प्रेशित कर रहा हूँ, उम्मीद है पसन्द आयेगी.....


एक मित्र ने लिखा 
Hum na bhi rahe to hamari yaaden wafa karengi tumse ,
Yeh na samajhna ke tumhe chaha tha baas jine ke kiye"

मैने लिखा
तुझे भूलने कि मेरी कोशीशे तमाम, एक जरिया हो गई तुझे याद करने की,
खुली जब यह बात जमाने मेँ, नही मिली एक भी मिसाल मुकरने की

सोमवार, 8 अगस्त 2011

(बेमेल) तुकबन्दी - किस्त चार

पिछ्ले कुछ दिंनोँ मेँ फेसबुक पर मित्रोँ के साथ वार्तालाप मेँ कुछ तुकबन्दी का सहारा लिया । उन्ही मेँ से कुछ को यहाँ अपने ब्लाग पर भी प्रेशित कर रहा हूँ, उम्मीद है पसन्द आयेगी..... 

मेरे एक मित्र Atul Pandey ने लिखा: 
कल मिला वक्त तो जुल्फें तेरी सुलझा लूँगा 
आज उलझा हूँ ज़रा वक्त के सुलझाने में 
यूँ तो पल भर में सुलझ जाती हैं उलझी जुल्फें 
उम्र कट जाती है पर वक्त के सुलझाने में



इस पर मैने लिखा था :
कल मिला वक्त तो आप जुल्फेँ सुलझाएँगे ?
और नही मिला वक्त तो हाथ मलते रह जाएँगे..
ज़िन्दगी का क्या है, सुलझाओ ना सुलझाओ बीत ही जाती है
लेकिन जुल्फेँ ना सुलझाया तो ज़िन्दगी भर सर खुजाएँगे

रविवार, 7 अगस्त 2011

(बेमेल) तुकबन्दी - तीसरा किस्त

पिछ्ले कुछ दिंनोँ मेँ फेसबुक पर मित्रोँ के साथ वार्तालाप मेँ कुछ तुकबन्दी का सहारा लिया । उन्ही मेँ से कुछ को यहाँ अपने ब्लाग पर भी प्रेशित कर रहा हूँ, उम्मीद है पसन्द आयेगी.....

ज़िन्दगी के दिए हर चोट, जख्म नहीँ शिक्षा है
हर जख्म से हम कुछ सीख सके, बस यही इच्छा है

सच्चा हमसफर, सफर-ए-ज़िन्दगी कि हर मुश्किल को कर दे आसाँ,
बस सच्चे हमसफर की पहचान ही ज़िन्दगी की असली परिक्षा है

करो हर प्रयास, कि पहचान हो सके सच्चे हमसफर का
मिलना हमसफर का कोई इत्तेफाक नहीँ, और न ही कोई भिक्षा है

शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

(बेमेल) तुकबन्दी - दूसरा किस्त

पिछ्ले कुछ दिंनोँ मेँ फेसबुक पर मित्रोँ के साथ वार्तालाप मेँ कुछ तुकबन्दी का सहारा लिया । उन्ही मेँ से कुछ को यहाँ अपने ब्लाग पर भी प्रेशित कर रहा हूँ, उम्मीद है पसन्द आयेगी.....


अकेलेपन का क्या डर, जब वह खुद ही मुझसे खौफज़दा है
ख्वाबो खयालोँ से क्या गिला, उससे कौन सा परदा है
क्या हुआ जो मै कुछ मायूस सा हूँ ऐ यारोँ
यही तो मेरी मासूमियत और अदा
है

गुरुवार, 4 अगस्त 2011

(बेमेल) तुकबन्दी


पिछ्ले कुछ दिंनोँ मेँ फेसबुक पर मित्रोँ के साथ वार्तालाप मेँ कुछ तुकबन्दी का सहारा लिया । उन्ही मेँ से कुछ को यहाँ अपने ब्लाग पर भी प्रेशित कर रहा हूँ, उम्मीद है पसन्द आयेगी..... 

एक दिन सोचा कि अकेले बैठ कर बोर होने का रस लिया जाय
लेकिन मेरी तनहाई ने मेरे पास आ कर मेरे अकेलेपन को तोड दिया

कभी सोचा कि चलो कभी ज़िन्दगी कि राहो मेँ अकेले खो कर देखेँ
लेकिन ज़िन्दगी के दो-राहोँ ने मुझे अपने आप मेँ खोने ना दिया

कभी सोचा कि चलो जमाने कि भीड मेँ कोई मित्र खोजा जाए
लेकिन कुछ ही समय मेँ मित्रोँ कि भीड मेँ मैँ खुद ही खो गया

इन आखोँ से जब भी दुनियाँ कि खूबसूरती को देखा
सबको कम-ज्यादा के तराजू मे रखा
लेकिन जब दिल कि आखोँ से परखा
मुझे कुछ भी बुरा न मिला

अगर उदास हो कर ज़िन्दगी को देखा जाय
तो सब कुछ नीरस सा लगता है
खुश हो कर कभी ज़िन्दगी को निहारो
हर कुछ केवल खुशनुमा ही मिलता है
 

(
तुक तो मिला नहीँ, बन्दगी ही सही)

सोमवार, 20 जून 2011

ये दोस्ती हम नहीं तोडेंगें

बंता देर रात घर पहुंचा.
पि‍ता ने पूछा : कहां थे बेटा
बेटा बोला : दोस्त के घर पर था पिता जी .
पिता ने उसके 10 दोस्तों के घर फोन किया.
4 ने जवाब दिया यहीं पर था अंकल.
3 ने जवाब दिया बस अभी निकला है अंकल घर पहुंचता ही होगा.
2 बोले : यहीं पर है अंकल पढ़ रहा है, फोन दूं क्या?
पर संता ने तो हद ही कर दी, बोला : “हां पापा बोलो क्या हुआ?”

बुधवार, 25 मई 2011

यह पुरूषो कि दुनियां है


भारत में शासन चलता है.........
दक्षिण में  अम्मा (जयललिता)  का
पुर्व में दीदी (ममता बनर्जी) का
उत्तर में बहन जी (मायावती) का
दिल्ली में आण्टी (शीला दिक्षित) का
केंद्र में मैडम (सोनियां गांधी) का
सबसे ऊपर, नानी (राष्ट्रपति) का


और घर में ......  बीबी का...
फिर भी लोग कहते हैं यह पुरूषो कि दुनियां है