भारत में प्रत्यक्ष निवेश के अपने लाभ-हानी हो सकते हैं, इस पर एक लम्बी बहस हो सकती है, होनी भी चाहिए, लेकिन अफसोस कि प्रत्यक्ष निवेश पर कोई सार्थक वार्ता हुई ही नहीं, अव्वल तो सरकार पक्ष के जल्दबाज़ी में लिए गए फैसले कि वजह से और दूसरी तरफ विपक्षी पार्टीयों के द्वारा संसद का कार्य स्थगन के कारण । यह बात हो पक्ष और विपक्ष दोनों जानते हैं कि ताली दोनों हाथ से ही बज सकती है, अगर कोई एक हाथ भी ताली बजाने में सहयोग नहीं करेगा तो कार्य नहीं हो सकेगा ।
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अब एक दूसरा राजनीतिक मुद्दा लेते हैं, भष्टाचार के खिलाफ एक मजबूत कानून का !
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भष्टाचार के खिलाफ एक मजबूत कानून की आवश्यकता से कोई भी इंकार नहीं कर सकता । लेकिन यह एक बडी त्रासदी है कि भष्टाचार के खिलाफ एक मजबूत कानून बनाने के लिए जनता को आंदोलन चलाना पडता है, (आखिर हमनें सांसदों को चुन कर संसद में पैसा लेकर प्रश्न पूछने के लिए तो नहीं ही भेजा था, उनका काम तो जनता के हित में कानून की समिक्षा करना ही तो है ना?) और फिर भी कुछ होता हुआ नहीं दिख रहा । मुझे नही लगता कि इस पर किसी भी वार्ता या बहस कि कोई भी आवश्यकता है, एक मजबूत कानून तो होना ही चाहीए । हां, इसकी व्यवस्था कैसे हो, सजा कितनी हो इस पर कुछ चर्चा हो सकती है, लेकिन यहां तो सार्थक चर्चा का कोई प्रयास होता ही नजर नही आ रहा है।
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यह हमारा लोकतंत्र किस दिशा में बढ रहा है? सांसद चर्चा नही करते, सरकार सुनती नहीं, विपक्ष कार्य स्थगन का बहाना ढूंढता रहत्ता है, भ्रष्टों पर कार्यवाही नहीं होती, जनता को एक मूलभूत मुद्दे पर अन्य कार्य छोड कर आंदोलन करना पडता है, और यह सब इसलिए क्योंकी आम जनता मतदान नही करती ।
आखिर हम कब समझेंगे अपने मत का महत्व ! क्यों न हम इन जैसे नेताओं का बहिस्कार कर दें!
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