कुछ मेरे बारे में

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आईज़ोल, मिज़ोरम, भारत
अब अपने बारे में मैं क्या बताऊँ, मैं कोई भीड़ से अलग शख्सियत तो हूँ नहीं। मेरी पहचान उतनी ही है जितनी आप की होगी, या शायद उससे भी कम। और आज के जमाने में किसको फुरसत है भीड़ में खड़े आदमी को जानने की। तो भईया, अगर आप सच में मुझे जानना चाहते हैं तो बस आईने में खुद के अक्स में छिपे इंसान को पहचानने कि कोशिश कीजिए, शायद वो मेरे जैसा ही हो!!!

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रविवार, 28 अगस्त 2011

मैं हूँ अन्ना


जिसको देखो आज वही कह रहा मैं हूँ अन्ना, मैं हूँ अन्ना
चाहे हो वो किसान, मजदूर या कोई सेठ हो धन्ना
अब लगता है सरकारी दफ्तर में सबका काम बनेगा
नहीं बना तो लगा लो टोपी, लिखा हो जिसपे "मैं हूँ अन्ना"

अब वो चाहे सांसद हो या हो विधायक,
हाथ जोड कर शीश नवा कर सुने का अर्जी
अब जनता है मालिक नेता अपने सेवक
बहुत हो चुका जालसाजी औ काम सब फर्जी

चल मित्र अब हम भी सिलवा लें एक टोपी
लिखवा लें उसपे मोटे शब्दों में "मैं भी अन्ना"

लेकिन मेरे यार न भूलो रखना होगा सम्मान इस टोपी का
यह ना सोचो यह टोपी बस तेरे ही सर पर फिट बैठेगा
दर्जनो सर ऐसे हैं जिन पर टोपी यह रक्खी है
जिनपे लिखा है भईया "मैं हूँ अन्ना" "मैं हूँ अन्ना"

अब कैसे होगी तुम्हारी ऊपर कि कमाई
गए थे मजा लगाने, अब तो तेरी ही शामत आई
मेरी तो यह राय है बंन्धू, अब ना करो आना कानी
ले लो शपथ, अब कमाओगे तो बस अपनी गाढी कमाई

जब तक हम सब अंदर से ना सुधरेंगे
तब तक कहना है बेकार कि "मैं हूँ अन्ना"

मंगलवार, 16 अगस्त 2011

चिंतन

सपोले भी अब फुफ्कारने लगे
साँपो कि शिकायत कौन करे ।

चूज़ो ने भी कफन सर पर बाँधा
अब जान कि हिफाज़त कौन करे ।

जब आज़ाद हुए तो सोचने लगे
अब हम पर हुकूमत कौन करे ।

पर जब बढ चले आज़ाद कदम
तब भ्रष्टो कि नजाकत कौन सहे ।

जब बेशर्म ही सिरमौर हुए
तब उम्मीद-ए-शराफत कौन करे ।

सब बैठे है यह सोच कर कि
देखें शुरूआत-ए-बगावत कौन करे ।

अब लाख टके का प्रश्न है कि
मुल्क के लिए पहले शहादत कौन करे ।

रविवार, 14 अगस्त 2011

स्वतंत्रता दिवस


हम सबको अपने देश का स्वतंत्रता दिवस मुबारक हो। यह एक ऐसी भावना है जिसे बोलने से ज़्यादा महसूस किया जाना चाहिए। लेकिन अफसोस ! आज के तेज़ चाल जमाने में हमें सोचने कि फुरसत कम है, हम बस बोल के काम चला लेते हैं। अगर समस्या केवल फुरसत कि कमी की होती तो भी गनीमत थी, असली समस्या तो यह है कि हम अब इन मुद्दों में छिपी भावनाओं को महसूस करने से कतराने लगे हैं।
       हम सब हर वर्ष 15 अगस्त और 26 जनवरी को कितने खुश होते हैं, दोस्तों मित्रों से मिलते हैं, एक समारोह सा माहौल होता है, राष्ट्र गान, देश भक्ती के गानें, मुँह में देश के लिए कुछ भी करनें के वायदे, हाथों में कागज के तिरंगे झंडे और जाने क्या-क्या। जाने क्यों, मुझे कभी-कभी यह सब सतही सा लगता है, इसमें गहराई और भावनाओं कि कमी लगती है। मैं ऐसा कहने के लिए आप सब से और खुद से भी माफी चाहता हूँ, लेकिन जरा सोचिए, 16 अगस्त और 27 जनवरी को और इसके बाद क्या होता है। हम फिर लग जाते हैं उसी खोखली कवायद में जिसमें 14 अगस्त और 25 जनवरी तक लगे होते हैं। जरा सोचिए अगर इस दिन छुट्टी न होती तो क्या हम वह सब करते जो हम किया करते हैं? अगर हाँ, तो जरा सोचिए हमें कौन रोकता है साल के 365 दिन इसी भावनाओं के साथ रहने से? क्यों हम भ्रष्टाचार में लिप्त रहते हैं? क्यों हम एक दूसरे को नीचा दिखाने कि कवायद में लगे रहते हैं? जरा सोचिए, जो कागज के तिरंगे झंडे 15 अगस्त और 26 जनवरी को हम पूरी शान से अपनें सीने से लगाए होते हैं वही 16 अगस्त और 27 जनवरी को मात्र कागज़ के रंगीन टुकड़े क्यों हो जाते हैं? क्यों हम मिठाई से मुँह तो मीठा कर लेते हैं लेकिन दिल के कड़वाहट दूर नहीं कर पाते? जिनसे एक दिन हम गले मिलते हैं, अगले दिन उसी के पीठ में छुरा क्यों घोंपते हैं?
       क्या हम अपनी इन आदतों से कभी आज़ाद हो पाएंगे? क्या हम स्वतंत्र हो पाएंगें? क्या हम अपनें देश को कभी सही मायनों में गणतंत्र बना पाएंगें? मुझे पुरी उम्मीद है, हाँ” ! हाँ हम ऐसा ज़रूर कर पाएंगें !!!
       आइए, आज से हम कोशिश करतें हैं कि हमारे जीवन में 15 अगस्त और 26 जनवरी मात्र दो दिन नहीं होंगें, बल्की साल के सभी 365 दिन हमारे लिए 15 अगस्त और 26 जनवरी जैसे ही होंगें।

बुधवार, 10 अगस्त 2011

(बेमेल) तुकबन्दी - किस्त पाँच


पिछ्ले कुछ दिंनोँ मेँ फेसबुक पर मित्रोँ के साथ वार्तालाप मेँ कुछ तुकबन्दी का सहारा लिया । उन्ही मेँ से कुछ को यहाँ अपने ब्लाग पर भी प्रेशित कर रहा हूँ, उम्मीद है पसन्द आयेगी.....


एक मित्र ने लिखा 
Hum na bhi rahe to hamari yaaden wafa karengi tumse ,
Yeh na samajhna ke tumhe chaha tha baas jine ke kiye"

मैने लिखा
तुझे भूलने कि मेरी कोशीशे तमाम, एक जरिया हो गई तुझे याद करने की,
खुली जब यह बात जमाने मेँ, नही मिली एक भी मिसाल मुकरने की

सोमवार, 8 अगस्त 2011

(बेमेल) तुकबन्दी - किस्त चार

पिछ्ले कुछ दिंनोँ मेँ फेसबुक पर मित्रोँ के साथ वार्तालाप मेँ कुछ तुकबन्दी का सहारा लिया । उन्ही मेँ से कुछ को यहाँ अपने ब्लाग पर भी प्रेशित कर रहा हूँ, उम्मीद है पसन्द आयेगी..... 

मेरे एक मित्र Atul Pandey ने लिखा: 
कल मिला वक्त तो जुल्फें तेरी सुलझा लूँगा 
आज उलझा हूँ ज़रा वक्त के सुलझाने में 
यूँ तो पल भर में सुलझ जाती हैं उलझी जुल्फें 
उम्र कट जाती है पर वक्त के सुलझाने में



इस पर मैने लिखा था :
कल मिला वक्त तो आप जुल्फेँ सुलझाएँगे ?
और नही मिला वक्त तो हाथ मलते रह जाएँगे..
ज़िन्दगी का क्या है, सुलझाओ ना सुलझाओ बीत ही जाती है
लेकिन जुल्फेँ ना सुलझाया तो ज़िन्दगी भर सर खुजाएँगे

रविवार, 7 अगस्त 2011

(बेमेल) तुकबन्दी - तीसरा किस्त

पिछ्ले कुछ दिंनोँ मेँ फेसबुक पर मित्रोँ के साथ वार्तालाप मेँ कुछ तुकबन्दी का सहारा लिया । उन्ही मेँ से कुछ को यहाँ अपने ब्लाग पर भी प्रेशित कर रहा हूँ, उम्मीद है पसन्द आयेगी.....

ज़िन्दगी के दिए हर चोट, जख्म नहीँ शिक्षा है
हर जख्म से हम कुछ सीख सके, बस यही इच्छा है

सच्चा हमसफर, सफर-ए-ज़िन्दगी कि हर मुश्किल को कर दे आसाँ,
बस सच्चे हमसफर की पहचान ही ज़िन्दगी की असली परिक्षा है

करो हर प्रयास, कि पहचान हो सके सच्चे हमसफर का
मिलना हमसफर का कोई इत्तेफाक नहीँ, और न ही कोई भिक्षा है

शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

(बेमेल) तुकबन्दी - दूसरा किस्त

पिछ्ले कुछ दिंनोँ मेँ फेसबुक पर मित्रोँ के साथ वार्तालाप मेँ कुछ तुकबन्दी का सहारा लिया । उन्ही मेँ से कुछ को यहाँ अपने ब्लाग पर भी प्रेशित कर रहा हूँ, उम्मीद है पसन्द आयेगी.....


अकेलेपन का क्या डर, जब वह खुद ही मुझसे खौफज़दा है
ख्वाबो खयालोँ से क्या गिला, उससे कौन सा परदा है
क्या हुआ जो मै कुछ मायूस सा हूँ ऐ यारोँ
यही तो मेरी मासूमियत और अदा
है

गुरुवार, 4 अगस्त 2011

(बेमेल) तुकबन्दी


पिछ्ले कुछ दिंनोँ मेँ फेसबुक पर मित्रोँ के साथ वार्तालाप मेँ कुछ तुकबन्दी का सहारा लिया । उन्ही मेँ से कुछ को यहाँ अपने ब्लाग पर भी प्रेशित कर रहा हूँ, उम्मीद है पसन्द आयेगी..... 

एक दिन सोचा कि अकेले बैठ कर बोर होने का रस लिया जाय
लेकिन मेरी तनहाई ने मेरे पास आ कर मेरे अकेलेपन को तोड दिया

कभी सोचा कि चलो कभी ज़िन्दगी कि राहो मेँ अकेले खो कर देखेँ
लेकिन ज़िन्दगी के दो-राहोँ ने मुझे अपने आप मेँ खोने ना दिया

कभी सोचा कि चलो जमाने कि भीड मेँ कोई मित्र खोजा जाए
लेकिन कुछ ही समय मेँ मित्रोँ कि भीड मेँ मैँ खुद ही खो गया

इन आखोँ से जब भी दुनियाँ कि खूबसूरती को देखा
सबको कम-ज्यादा के तराजू मे रखा
लेकिन जब दिल कि आखोँ से परखा
मुझे कुछ भी बुरा न मिला

अगर उदास हो कर ज़िन्दगी को देखा जाय
तो सब कुछ नीरस सा लगता है
खुश हो कर कभी ज़िन्दगी को निहारो
हर कुछ केवल खुशनुमा ही मिलता है
 

(
तुक तो मिला नहीँ, बन्दगी ही सही)