बाज़ार केवल लाभ कि भाषा जानता है, मेरे ख्याल से इसे खुली छूट नहीं दी जानी चाहिए। Survival of the fittest सुनने में तो अच्छा लगता है, लेकिन कभी हम यह भी सोचते है कि आगे बढने कि इस अंधी दौड में पीछे रह जाने वाला व्यक्ति भी हममें से ही एक होता है। भारतीय संसकृति में हम केवल लाभ कि चर्चा न कर के शुभ-लाभ कि चर्चा करते हैं, यानीं वह लाभ जो शुभ हो, अब क्या कोई ऐसा कदम शुभ हो सकता है जिससे चंद लोगों को असीम लाभ होता हो लेकिन जनसाधारण को कोई लाभ न हो बल्की दूरगामी हानी का ही अंदेशा हो?
मुझे देश कि उच्च विकास दर पर नाज़ तो है लेकिन जाने क्यों मुझे लगता है कि यह लाभ उस अंतिम व्यक्ति (जैसा गांधी जी ने कहा है) तक नहीं पहुंच पाता है । तो क्या यह विकास केवल चंद लोगों के लिए ही है?
ऐसी मान्यता है कि उच्च विकास दर कि वजह से मुद्रास्फिति पैदा होती है, मुद्रास्फिति के इस चक्की से बडे व्यापारियों पर तो धन-वर्षा होती है लेकिन उस चक्की में पिसता हो आम आदमी ही है न? तो क्या यह उच्च विकास दर एक छलावा मात्र नहीं है?
मुझे देश कि उच्च विकास दर पर नाज़ तो है लेकिन जाने क्यों मुझे लगता है कि यह लाभ उस अंतिम व्यक्ति (जैसा गांधी जी ने कहा है) तक नहीं पहुंच पाता है । तो क्या यह विकास केवल चंद लोगों के लिए ही है?
ऐसी मान्यता है कि उच्च विकास दर कि वजह से मुद्रास्फिति पैदा होती है, मुद्रास्फिति के इस चक्की से बडे व्यापारियों पर तो धन-वर्षा होती है लेकिन उस चक्की में पिसता हो आम आदमी ही है न? तो क्या यह उच्च विकास दर एक छलावा मात्र नहीं है?
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