मुझे SECULAR शब्द एक शब्द कम राजनीति
ज़्यादा लगता है । ऐसा मेरा मानना है कि हमारे देश ने कभी इस शब्द को अर्थ दिया था,
लेकिन हमारे अपने नेताओं ने इस अर्थ का चीरहरण कर लिया। अब जब भी मैं यह शब्द SECULAR
सुनता हूँ तो मुझे
धर्मनिर्पेक्षता नहीं बल्कि इसकी आड में धर्मसापेक्षता से भरा कोई कुटील वक्तव्य
नज़र आने लगता है । हम लोग जब मुस्लिम समाज के बारे में कुछ बोलते हैं तभी SECULAR शब्द का प्रयोग करते हैं । अबतो स्थिति यह है
कि अब धर्मनिर्पेक्षता
का रंग भी होने लगा है; कभी हरा तो कभी गेरुआ । धर्मनिर्पेक्षता के नाम पर हम अब
रंग-निर्पेक्ष भी नहीं रहे।
ज़रा याद करके देखिए आपने आखरी बार
कब SECULAR शब्द का प्रयोग गैर
मुसलिम के संदर्भ में सुना था । अगर हम सही मायने में SECULAR हैं तो हमे इस शब्द कि कोई ज़रूरत ही नहीं पडनी
चाहिए । हमें किसे के धर्म के बारे में सोचना ही नहीं चाहिए।
इस चर्चा को थोडा और आगे बढाते
हैं। मैं आजतक यह नहीं समझ सका कि भारत में किसी भी नौकरी के लिए दिए जाने वाले
आवेदन पत्र में “आपका धर्म” क्यों पोछा जाता है? इस प्रश्न का कोई मकसद नहीं होता ऐसा मेरा मानना है, और
इसका कारण है, मैं सरकारी नौकरी में हूँ, और मुझे याद है आवेदन पत्र में मैंने इस
प्रश्न का कोई जवाब नहीं लिखा था।
आइए ज़रा अपने धर्मनिर्पेक्ष लोकतंत्र
के एक मजबूत खम्बे के बारे में भी कुछ चर्चा कर लेते हैं । अभी उत्तरप्रदेश में
चंद दिनों पहले ही आम चुनाव हुआ था । ज़रा याद किजीए, लगभग सभी पार्टीयों नें धर्म
और जाती के आघार पर टिकटों का बटवारा किया था, और मौंके-बे-मौके इसे कबूल भी किया
था, लेकिन चुनाव आयोग द्वारा कोई आपत्ति नहीं उठाई गई। क्यों? पता नहीं । और उससे
भी बुरा तो यह हुआ कि धर्मनिर्पेक्ष लोकतंत्र के सबसे बडे ठेकेदार “संचार माध्यम” (माफ किजीए लेकिन इनके
लिए यह शब्द उचित लगता है) ने भी यह मुद्दा नहीं उठाया । मुद्दा उठाना तो दूर,
टी.वी. समाचार चैनल तो इसी पर चर्चा करते रहे कि किस पार्टी नें कितने पिछड़ो, कितने
मुस्लिमो आदि को टिकट दिया है। जैसे यह कोई बहुत समझदारी का काम हो ।
और-तो-और
हमारे कानून व्यवस्था ने भी इन सबका संज्ञान नहीं लिया । अगर हम सही मायनों में धर्मनिर्पेक्ष
लोकतंत्र बनना चाहते हैं तो हमें इन सब सोच से आगे बड़ना होगा । धर्मनिर्पेक्ष को
तो अपनाना ही होगा लेकिन रंग-निर्पेक्षता के साथ ।
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