कुछ मेरे बारे में

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आईज़ोल, मिज़ोरम, भारत
अब अपने बारे में मैं क्या बताऊँ, मैं कोई भीड़ से अलग शख्सियत तो हूँ नहीं। मेरी पहचान उतनी ही है जितनी आप की होगी, या शायद उससे भी कम। और आज के जमाने में किसको फुरसत है भीड़ में खड़े आदमी को जानने की। तो भईया, अगर आप सच में मुझे जानना चाहते हैं तो बस आईने में खुद के अक्स में छिपे इंसान को पहचानने कि कोशिश कीजिए, शायद वो मेरे जैसा ही हो!!!

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मंगलवार, 29 सितंबर 2009

आवारा पूँजी (भाग दो)

तारापोर समिति के सिफारिश के अनुसार शेयर बाजार में विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) द्वारा निवेश के लिए इस्तेमाल किए जा रहे पी-नोट्स की अपारदर्शी व्यवस्था को समाप्त कर दिया जाना चाहिए। उपरोक्त समिति के अलावा भारत के केन्द्रीय बैंक (भारतीय रिज़र्व बैंक) ने भी इस पर अपनी असहजता व्यक्त की है, रिजर्व बैंक की चिंता की वजह यह है कि पी-नोट्स के जरिए आनेवाले धन के स्रोत का पता नहीं होता और यह माना जाता है कि उसका इस्तेमाल आवारा पूंजी के सबसे बदनाम खिलाड़ी हेज फंड आदि करते है। एक अपुष्ट अनुमान यह भी है कि पी-नोट्स का इस्तेमाल कई बड़े देशी कारपोरेट समूह, राजनेता और अमीर लोग हवाला के जरिए विदेश गए अपने कालेधन को वापस देश में लाने के लिए भी कर रहे है।

रिजर्व बैंक का मानना था कि पी-नोट्स के जरिए शेयर बाजार में आनेवाली यह पूंजी अपने चरित्र में बहुत चंचल और अस्थिर होती है और इस कारण न सिर्फ शेयर बाजार के लिए बल्कि पूरी वित्तीय व्यवस्था की स्थिरता के लिए खतरनाक हो सकती है। रिजर्व बैंक के डर की वजह यह भी थी कि एफआईआई के जरिए देश में आ रही कुल विदेशी पोर्टफोलियो पूंजी का 50% से ज्यादा पी-नोट्स के रूप में आ रहा था। नवम्बर 2003 तक कुल पोर्टफोलियो निवेश का 25 प्रतिशत पी-नोट्स के रूप में आ रहा था जो जून 2006 तक बढ़कर दुगुना हो गया। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि शेयर बाजार में पी-नोट्स की भूमिका किस हद तक निर्णायक हो गई थी। यही कारण है कि रिजर्व बैंक पी-नोट्स पर पाबंदी लगाने की वकालत कर रहा था। इसमें रिजर्व बैंक तथा तारापोर समिति अकेला नहीं है, शेयर बाजार की नियामक संस्था सेबी ने भी पी-नोट्सको लेकर अपनी नापसंदगी कई बार जाहिर की है।

इस संदर्भ में 16 अक्टूबर 2007 को सेबी ने अपनी वेबसाइट पर एक चर्चा पत्र जारी किया। इसमें एफआईआई द्वारा पी-नोट्स के इस्तेमाल पर रोक लगाने का जिक्र किया गया था। उसकी अगली सुबह ही शेयर सूचकांक नौ फीसदी से भी अधिक लुढ़क गए और कारोबार रोकना पड़ गया। इसके बाद वित्तमंत्री ने पहल करते हुए बाजार से संवादकिया और बार-बार सभी को यह आश्वासन दिया कि सरकार ने पी-नोट्स पर रोक नहीं लगाई है। इसी माह के अंत में पी-नोट्स पर आंशिक रोक लगा दी गई। इस रोक तथा वैश्विक मंदी के मिश्रित प्रभाव एवं अन्य कारणों से शेयर बाज़ार में ऐतिहासिक गिरावट दर्ज की गई। हलांकि इस गिरावट के कई अन्य कारण गिनाए जा सकते हैं लेकिन इस दौरान एफ़आईआई (फ़ॉरेन इंस्टीट्यूशनल इन्वेस्टर) द्वारा किये गए भारी विनिवेश को नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता और इस विनिवेश के कारण के तौर पर पी-नोट्स पर रोक के निर्णय से इंकार नहीं किया जा सकता।

उल्लेखनीय है कि भारतीय शेयर बाजारों में एफआईआई का निवेश बढ़ने के बजाय घटना प्रारम्भ हो गया। दुनियाभर के बाजारों में छाई मंदी के चलते देश में विदेशी निवेशकों का जो पैसा लगा था, वह भी निकलने लगा। सेबी के आँकड़े बताते हैं कि अक्टूबर 2007 से सितंबर 2008 तक विदेशी निवेशकों ने लगभग 18 हजार करोड़ रूपए बाजार से बाहर निकाल लिए थे। इस बदली हुई परिस्थिति का मुकाबला करनें के लिए शेयर बाजार की नियामक संस्था सेबी ने अक्टूबर 2008 में पार्टिसिपेटरी नोट्‍स के मामले में ढील प्रदान किया है।

आवारा पूँजी, खास तौर पर पी-नोट्स एवं हेज़ फंड के माध्यम से आने वाले निवेश कि आवारगी से परिचित होने के बाद एक प्रश्न उठता है, आखिर क्यों सरकार ऐसे निवेश को अनुमति प्रदान करती है? इस सन्दर्भ में हमें यह याद रखना होगा कि 21वीं सदी की भारतीय अर्थव्यवस्था काफी हद तक खुली अर्थव्यवस्था है। इन परिस्थितियों में हम ऐसा नहीं कह सकते कि हम फलां प्रकार के निवेश के प्रवेश कि अनुमति तो दे सकते हैं लेकिन फलां प्रकार के निवेश को अनुमति नहीं दे सकते। यह परिस्थिति अर्थव्यवस्था कि अपरिपक्वता एवं दकियानूसीपन को दर्शाती है। यह नीति बेहतर एवं स्थायी अतंर्राष्ट्रीय निवेशकों के बीच भ्रम कि स्थिति पैदा कर उन्हे हतोत्साहित कर सकती है। अतः ऐसे निवेश को पूर्णतया प्रतिबन्धित करने के बजाय नियंत्रित करने की आवश्यकता है।

इस सन्दर्भ में हमें यह नहीं मान लेना चाहिए कि ऐसे निवेश अर्थव्यवस्था को केवल अव्यवस्थित ही करते हैं। नहीं ऐसा कत्तई नहीं है। एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था को व्यापक होने के लिए तरलता कि आवश्यकता होती है। ऐसी अर्थव्यवस्था के उभार के प्रथम-द्वितीय चरण में बड़े अंतर्राष्ट्रीय निवेशक आकर्षित नहीं होते क्योंकि इस परिस्थिति में विकास के स्थायित्व का अंदाज़ नहीं लगाया जा सकता तथा आधारभूत संरचना में भी स्थायित्व का अभाव होता है। जबकी दूसरी तरफ इस दौर में पूँजी निवेश पर लाभ का प्रतिशत छोटी अवधि में ज़्यादा हो सकता है। यह परिस्थिति आवारा पूँजी को आकर्षित करती है क्योंकि यह छोटी अवधि के लिए ही निवेश करते हैं तथा कम लाभप्रदता कि अवस्था में पलायन कर जाते हैं। इस प्रक्रिया में यह निवेश अर्थव्यवस्था को जीवन रक्त उपलब्ध करा सकते हैं और राष्ट्र को निवेश के लिए आवश्यक आधारभूत संरचना एवं माहौल बनाने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं।

(.....शेष अगले किस्त में)

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